Coronavirus (Covid-19): कोरोना वायरस महामारी (Coronavirus Epidemic) की वजह से दुनियाभर में हाहाकार मचा हुआ है. वायरस से निपटने के लिए दुनिया के कई देशों ने लॉकडाउन (Lockdown) लगा रखा है जिसकी वजह से आर्थिक गतिविधियां ठप हैं. परिणाम यह है कि लोगों की नौकरियां जा रही हैं कई छोटे उद्योग बंदी की कगार पर पहुंच गए हैं. सरकारों को आर्थिक स्थिति को उबारने के लिए आर्थिक राहत पैकेज (Economic Relief Package) लाना पड़ रहा है. हालांकि सरकारें भी एक सीमा तक ही राहत पैकेज जारी कर सकती हैं. ऐसे में आप लोगों के मन यह सवाल आता होगा कि सरकार नोट छापकर इस समस्या का निराकरण कर सकती है.
जानकारों का कहना है कि कोई भी देश सामान्यत: सकल घरेलू उत्पाद (GDP) का 2 फीसदी से 3 फीसदी तक नोटों की छपाई करता है. ऐसे में ज्यादा से ज्यादा नोटों की छपाई के लिए जीडीपी में बढ़ोतरी होना जरूरी है. जानकारों का कहना है कि जीडीपी में बढ़ोतरी के लिए सरकारों को विनिर्माण क्षेत्र में ग्रोथ, चालू खाता घाटा व्यापार घाटे को कम करने जैसे उपाय करने जरूरी होते हैं.
अर्थशास्त्रियों का कहना है कि ज्यादा से ज्यादा नोट छापने से महंगाई चरम पर पहुंच सकती है. बता दें कि जिम्बाब्वे वेनेजुएला की सरकारों ने कर्ज को चुकाने के लिए भारी मात्रा में नोटों की छपाई की थी. उनके इस कदम के बाद आर्थिक ग्रोथ, सप्लाई मांग में सामंजस्य नहीं होने की वजह से वहां पर महंगाई चरम पर पहुंच गई थी. इन देशों ने जितने नोटों की छपाई की उतनी ही महंगाई में बढ़ोतरी देखने को मिली थी. ये दोनों ही देश बहुत अधिक महंगाई (Hyperinflation) में चले गए थे. आंकड़ों के मुताबिक 2008 में जिम्बाब्वे में महंगाई दर में 231,000,000 फीसदी की बढ़ोतरी देखने को मिली थी.
जानकारों का कहना है कि अगर नोटों की छपाई जारी रहती है उत्पादन कम या पूरी तरह से बंद रहता है तो ऐसी स्थिति में सप्लाई प्रभावित होने से महंगाई में बढ़ोतरी होना निश्चित है. इसके अलावा एक सीमा से अधिक नोटों की छपाई होने से करेंसी की कीमत में भी भारी गिरावट आती है. इसके अलावा दुनिया की बड़ी रेटिंग एजेंसियां देश की रेटिंग में भी कटौती करने लग जाती है, जिसकी वजह से उन्हें दूसरे देशों से लोन मिलने में दिक्कत होती है. वहीं अगर इन देशों को कर्ज मिलता भी है तो बड़े ऊंचे रेट पर कर्ज दिया जाता है.
बता दें कि 2008 की मंदी के समय कई देशों के सेंट्रल बैंक ने नोटों की छपाई के जरिए अर्थव्यवस्था को संभालने का प्रयास किया गया था. उस प्रक्रिया को 'क्वांटिटेटिव इजींग' (Quantitative Easing) कहा गया. इसका मतलब यह था कि अधिक से अधिक लोगों के पास पैसे की पहुंच बढ़ाने के लिए ज्यादा से ज्यादा नोटों की छपाई से था. हालांकि बाद में देखा गया था कि जिन देशों ने इस प्रणाली का सहारा लिया था वहां पर महंगाई तो बढ़ी ही साथ में करेंसी का अवमूल्यन भी हो गया था.
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